भगवान की सच्ची भक्ति
दोस्तों एक बार की बात है एक बजुर्ग सज्जन थे उनका नाम था रामदयाल| एक रविवार को सवेरे सवेरे वह एक परिचित से मिलने गए और बाते करते रहे बाते इस तरह लम्बी होती गयी की सुबह के नौ बज गए| तभी रामदयाल जी ने घडी देखी और हडबडा कर उठ खड़े हुए और कहा , “माफ कीजिये मुझे मंदिर जाना है|” तब उनके परिचित ने भी कहा की चलिए मै भी आपके साथ चलता हू | रास्ते में और बाते हो जाएगी| इस पर रामदयाल जी बोले, “ लेकिन मै आपके वाले मंदिर नहीं जा रहा|” इस पर परिचित ने बढे ही आश्चर्य से पुछा, तो फिर आप कौनसे मंदिर जायेंगे?”
रामदयाल जी मुस्कुराये, फिर उन्होंने पुछा, “ क्या आप भी चलेगे जहां मै जाता हू?” परिचित ने सहमति जताई तो रामदयाल जी उन्हें शहर से दूर गलियों में गरीबो की बस्ती में ले गए| वहा चारो ओर झोपडिया थी | रामदयाल जी एक झोपडी में घुस गए| वह परिचित भी थोड़े संकोच के साथ उसमे चला गया| उसमे एक वृद्ध खाट पर लेटे हुए थे और एक बच्चे को पंखा झल रहे थे |
रामदयाल जी ने वृद्ध के हाथ से पंखा लिया और कहा, “ बाबा अब आप जाओ|” वृद्ध के जाने के बाद रामदयाल जी उस परिचित से बोले, “ यह बच्चा अनाथ है| इसे टीबी हो गयी है| पड़ोस के यह वृद्ध ही इसकी देखभाल करते है | लेकिन उन्हें दस से दो बजे तक काम पर जाना होता है | इस बीच मै इसके साथ रहता हूँ| इसकी सेवा करता हूँ| चार घंटे बाद जब वह वृद्ध वापस आ जाते है तब मै चला जाता हूँ| यही मेरी पूजा है यही मेरा मंदिर है| वह परिचित अवाक सा उन्हें देखता रहा|
सीख---- नर सेवा ही नारायण की सेवा है अर्थात मानव सेवा करते रहे वही सच्ची भगवान की भक्ति है |
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